एक विधायक नहीं, सोच की क्रांति – रामनिवास सुरजाखेड़ा"
यहाँ से आवाज़ उठती थी… और पूरे प्रदेश की सत्ता हिल जाती थी।
“ये सवाल सिर्फ राजनीति का नहीं… ये सवाल है सम्मान का!
कभी कहा जाता था – नरवाना आरक्षित हो गया, नरवाना की रफ़्तार थम गई, दलित समाज तो सिर्फ वोट देने तक सीमित है…
लेकिन वक्त बदला… और बदला एक शख्स के आने से — रामनिवास सुरजाखेड़ा!
दलित समाज सिर्फ वोट देने वाला नहीं,
दलित समाज अब निर्णय लेने वाला है!
दलित समाज अब राजनीति की धुरी है!
जिस दलित वर्ग को राजनीति में हाशिए पर खड़ा मान लिया गया था, उसी वर्ग की आवाज़ ने नरवाना की तस्वीर बदल दी।
आज हालात ये हैं कि लोग कहते हैं – सुरजाखेड़ा आया, तो दलित समाज की वैल्यू बढ़ी…
अब सवाल ये है – क्या सच में रामनिवास सुरजाखेड़ा ने नरवाना की राजनीति में ‘दलित पहचान’ को नई ताक़त दी?
क्या उन्होंने वो धारणा तोड़ दी कि आरक्षित सीट होना एक श्राप है?
और सबसे बड़ा सवाल – क्या यही है वो पलटवार, जिसने दलित समाज को नरवाना की राजनीति में बराबरी का दर्जा दिला दिया?”रामनिवास ने साबित किया –
आज सवाल सिर्फ इतना है –
क्या रामनिवास सुरजाखेड़ा ने सच में नरवाना को वो रफ़्तार वापस दी, जिसकी गूंज कभी पूरे हरियाणा की राजनीति में सुनाई देती थी?
intro
नरवाना की राजनीति का इतिहास हमेशा से चर्चाओं में रहा है। कभी यह इलाका हरियाणा की राजनीति का केंद्र बिंदु हुआ करता था। शमशेर सिंह सुरजेवाला, टेकचंद नैन, ओमप्रकाश सुरजेवाला और रणदीप सिंह सुरजेवाला जैसे नेताओं ने नरवाना को एक अलग पहचान दिलाई। उस दौर में जब ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री हुआ करते थे, तो “सरकार आपके द्वार” कार्यक्रम के तहत हर छह महीने गांवों में जाकर जनता से पूछा जाता – “मेरे प्रिय ग्रामवासियों, बोलो क्या चाहिए?” और जो मांग ग्रामीण रखते, उसे तुरंत पूरा कर दिया जाता। यही वजह थी कि कहा जाता था – “पूरा हरियाणा में नरवाना, नरवाना हो रखा है। सरकार भी चल रही है और राजनीति भी नरवाना से चल रही है।”
लेकिन वक्त बदला। नरवाना आरक्षित सीट घोषित हो गया। लगातार दस साल तक पिरथी नंबरदार विधायक रहे। उनकी छवि ईमानदार और सरल व्यक्तित्व की रही, लेकिन विकास के मोर्चे पर नरवाना पिछड़ गया। प्रदेशभर में काम हो रहे थे, मगर नरवाना में रफ्तार रुक गई। लोग कहने लगे – “जो नरवाना कभी पूरे हरियाणा की राजनीति का गढ़ था, आज वही नरवाना बेसहारा हो गया है।” आरक्षित सीट को लोगों ने “श्राप” तक कहना शुरू कर दिया।
ऐसे माहौल में राजनीति में आए रामनिवास सुरजाखेड़ा। पढ़े-लिखे, नई सोच के नेता। उन्होंने संकल्प लिया कि नरवाना पर जो “श्राप” की छवि बनी है, उसे मिटाना है। हालांकि चुनौतियां कम नहीं थीं। वो सत्ताधारी पार्टी से नहीं, बल्कि गठबंधन वाली जेजेपी से विधायक बने। ऐसे में विकास के काम करवाना आसान नहीं था। फिर भी उन्होंने चंडीगढ़ में बैठकर एक-एक योजना तैयार की और फाइलों के पीछे लगकर काम शुरू करवाया।
शुरुआत में आरोप लगे – “वो जनता से मिलते क्यों नहीं, नरवाना क्यों नहीं आते?” लेकिन उनका जवाब साफ था – “जनता से मिलेंगे भी, उनकी बात भी सुनेंगे, लेकिन फिलहाल प्राथमिकता है विकास। पहले काम हो, फिर मुलाकात भी होगी।”
धीरे-धीरे नतीजे सामने आए। रोजगार के मौके बढ़ने लगे, विकास कार्य धरातल पर उतरने लगे। शहर के लिए सीवरेज और पानी का मास्टर प्लान मंजूर हुआ। डिजिटल लाइब्रेरी बनी। शहर की लिमिट बढ़ाई गई ताकि आगे की प्लानिंग आसान हो सके। गांवों में सड़कों का जाल बिछाया गया। जलघर और बिजलीघर बने। रोजगार के अवसरों ने युवा वर्ग का भरोसा लौटाया।
सबसे अहम बात यह रही कि दलित और वंचित वर्ग में भी आत्मविश्वास पैदा हुआ कि वे सिर्फ राजनीति का हिस्सा ही नहीं, बल्कि विकास के असली सूत्रधार भी बन सकते हैं। रामनिवास सुरजाखेड़ा ने यह साबित कर दिया कि आरक्षित सीट “श्राप” नहीं, बल्कि अवसर है – अगर सही नीयत और मेहनत से काम किया जाए।
आज नरवाना की तस्वीर बदल रही है। जो इलाका कभी राजनीति का गढ़ था और फिर उपेक्षा का शिकार हो गया था, वहां अब फिर से विकास की गूंज सुनाई दे रही है। रामनिवास सुरजाखेड़ा ने साबित किया कि एक विधायक अगर ईमानदारी से कोशिश करे तो कठिन से कठिन हालात में भी बड़ा बदलाव ला सकता है।
अब सवाल जनता के सामने है – क्या सुरजाखेड़ा वही नेता हैं जिन पर भरोसा करके नरवाना की खोई हुई पहचान वापस लाई जा सकती है?
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