भारत-पाकिस्तान के संघर्ष: इंदिरा गांधी की कूटनीति और आज के नेताओं का फर्क

 

भारत-पाकिस्तान के संघर्ष: इंदिरा गांधी की कूटनीति और आज के नेताओं का फर्क

जब 1971 में बांग्लादेश पाकिस्तान के खिलाफ संघर्ष कर रहा था, और पाकिस्तान भारत को धमकियाँ दे रहा था, तब भारतीय संसद में एक दिलचस्प स्थिति उत्पन्न हुई थी। उस समय कांग्रेस और विपक्ष दोनों के सांसदों ने इंदिरा गांधी पर दबाव डाला कि भारत कुछ ठोस कदम उठाए। इन दबावों के बावजूद, इंदिरा गांधी ने संसद में ऐतिहासिक बयान दिया था: "इस तरह के गंभीर समय में, सरकार जितना कम बोले, उतना ही बेहतर होगा।" यह बयान इंदिरा गांधी की गहरी कूटनीतिक समझ और संकट की घड़ी में संयम रखने की नीति का प्रतीक था।

कूटनीति की गहरी समझ

इंदिरा गांधी के इस बयान को एक कूटनीतिक मास्टरस्ट्रोक के रूप में देखा जाता है। हालांकि, उनकी सरकार सार्वजनिक तौर पर चुप थी, मगर अंदर ही अंदर वे रूस से लेकर अमेरिका और यूरोपीय देशों के साथ अपने दूतों और कूटनीतिज्ञों के माध्यम से गहरे संपर्क में थीं। इसके अलावा, भारतीय खुफिया एजेंसी, रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग), भी पाकिस्तान के खिलाफ सीक्रेट ऑपरेशंस में लगी हुई थी।

जब दुनिया भर में भारत की चुप्पी को लेकर चर्चा हो रही थी, इंदिरा गांधी ने एक सटीक और सशक्त सैन्य अभियान के लिए रास्ता तैयार किया। कुछ ही दिन बाद, भारतीय सेना ने न केवल युद्ध लड़ा, बल्कि पाकिस्तान को बुरी तरह हराया और अंततः पाकिस्तान का विभाजन कर दिया। इसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का गठन हुआ, और पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा अब अलग हो चुका था।

आज के नेता और उनका रवैया

इसके मुकाबले, जब हम आज के नेताओं की बात करते हैं, तो हमें एक बड़ा फर्क दिखता है। पाकिस्तान द्वारा लगातार भारत पर हमले किए गए हैं, जैसे कि 2015 में गुरदासपुर हमला, 2016 में पठानकोट और उरी हमले, और 2019 में पुलवामा हमला, लेकिन इन हमलों के बाद भारतीय नेताओं का रवैया पूरी तरह से अलग रहा है। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री अक्सर बड़े-बड़े भाषण देते हैं और चुनावी रैलियों में पाकिस्तान को घेरते हैं, लेकिन असल में पाकिस्तान के खिलाफ कोई ठोस कदम उठाने के बजाय यह नेता सिर्फ़ सांप्रदायिक माहौल को और भी बिगाड़ने की कोशिश करते हैं।

इन हमलों के बाद ना तो कोई ज़िम्मेदारी ली गई, ना किसी गृहमंत्री से इस्तीफ़ा लिया गया। बल्कि, नेताओं ने केवल हुलुल हुलुल करके अपना ध्यान भटकाने की कोशिश की। चुनावी भाषणों और स्टंटों की भरमार होती है, लेकिन पाकिस्तान के खिलाफ वास्तविक कार्रवाई की कोई योजना सामने नहीं आई। यही फर्क है एक स्टेटसमैन और स्टंटमैन में।

इंदिरा गांधी की स्थिर नेतृत्व क्षमता

इंदिरा गांधी के समय, भारत का नेतृत्व एक स्थिर और संकल्पित हाथों में था। उन्होंने न केवल युद्ध की रणनीति बनाई, बल्कि पूरे विश्व में भारत की स्थिति को मजबूती से प्रस्तुत किया। उनकी कूटनीतिक निपुणता और निर्णय लेने की क्षमता ने भारत को एक नया आघात दिया था। पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश के गठन के बाद, भारत ने अपनी शक्ति और क्षेत्रीय स्थिरता को स्थापित किया।

आज की राजनीति और नेतृत्व

आज, जब हम अपने नेताओं को देखते हैं, तो यह महसूस होता है कि वे केवल भाषणों और चुनावी रणनीतियों में उलझे हुए हैं। चुनावी रैलियों में पाकिस्तान के खिलाफ तमाम बयानबाजी की जाती है, लेकिन जब जमीनी स्तर पर कार्यवाही की बात आती है, तो नेता अधिकतर चुप रहते हैं या इसे सांप्रदायिक मुद्दे में बदल देते हैं। क्या यह देश की सुरक्षा और रणनीतिक हितों के साथ समझौता नहीं है? क्या यह वक्त नहीं है कि नेताओं को इंदिरा गांधी की तरह गंभीर समय में अपने काम करने की क्षमता दिखानी चाहिए?

आज, हम इंदिरा गांधी से कुछ सीख सकते हैं। एक सशक्त, स्थिर और रणनीतिक नेतृत्व का महत्व समझ सकते हैं, जो न केवल शब्दों, बल्कि ठोस कार्यों के जरिए अपने देश का मार्गदर्शन करता है।

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