शाहबाद ने कृष्ण बेदी को नकारा, तब नरवाना की याद आई?

 शाहबाद ने कृष्ण बेदी को नकारा, तब नरवाना की याद आई?


विधानसभा और एमसी का चुनाव हारने के बाद नरवाना की तरफ किया रूख ?

कुलदीप खंडेलवाल

नरवाना विधानसभा सीट पर इस बार प्रदेश की नजरें टिकी हुई हैं। यह आरक्षित सीट हमेशा से ही राजनीतिक चर्चा का केंद्र रही है, लेकिन इस बार इसे 'हॉट सीट' कहा जा रहा है। विधानसभा चुनाव से पहले यहां शतरंज की सियासत खेली गई, जहां राजा ने अपनी सियासत बचाने के लिए रानी का सहारा लिया। प्यादों को आगे कर, हाथी, घोड़े और बिशप की मदद से नरवाना के वजीर को घेरने की कोशिश की गई।

शतरंज के खेल में राजा की स्थिति भले ही सीमित हो, लेकिन रानी का महत्व बेहद खास है। वह हर दिशा में चल सकती है और किसी भी खिलाड़ी को मात दे सकती है। इसी तरह, राजनीतिक खेल में भी रानी सबसे प्रभावशाली साबित होती है। भाजपा ने इस बार नरवाना में टिकट देने के लिए बाहर के चेहरे पर दांव लगाया, जबकि नरवाना में पार्टी को जीवित रखने वाले अपने ही नेताओं पर भरोसा नहीं दिखाया। अपने ही वफादार नेताओं को किनारे कर एक बाहरी नेता, कृष्ण बेदी, को टिकट दे दिया। शाहबाद से नकारे गए कृष्ण बेदी को नरवाना में टिकट देना, यहां के पुराने कार्यकर्ताओं के साथ नाइंसाफी जैसा है।

नरवाना के पुराने चेहरे: जोरा सिंह और भगवती प्रसाद बागड़ी

नरवाना में भाजपा के लिए जोरा सिंह बढनपुर और भगवती प्रसाद बागड़ी ऐसे नेता हैं, जिन्होंने पार्टी के सबसे बुरे वक्त में भी उसका साथ नहीं छोड़ा। जब भाजपा के लिए टिकट लेने वाला कोई नहीं था और न ही पार्टी का झंडा थामने वाला कोई था, तब इन दोनों ने पार्टी का झंडा और डंडा उठाए रखा। आज भी जब हम नरवाना की बात करते हैं, तो विश्वकर्मा चौक पर स्थित भाजपा का छोटा सा कार्यालय याद आता है, जहां से कमल का फूल वाला झंडा फहराया जाता था।

आज, जबकि भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है, जोरा सिंह और भगवती प्रसाद नरवाना की गलियों में वैसे ही घूमते नजर आते हैं जैसे पहले। सवाल उठता है कि भाजपा ने ऐसे निष्ठावान कार्यकर्ताओं पर भरोसा क्यों नहीं दिखाया, और उनकी जगह शाहबाद से नकारे गए चेहरे को नरवाना में टिकट दे दिया।

कृष्ण बेदी और शाहबाद की जनता

शाहबाद की जनता ने विधानसभा और नगरपरिषद चुनाव में कृष्ण बेदी को नकार दिया। पांच साल मंत्री और चार साल सीएम के ओएसडी रहने के बाद भी शाहबाद की जनता ने उन्हें चुनाव में स्वीकार नहीं किया। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर कृष्ण बेदी इतने महत्वपूर्ण हैं, इतने काबिल और बेशकीमती हैं, तो भाजपा ने उन्हें शाहबाद में चुनाव क्यों नहीं लड़वाया? नरवाना क्यों भेजा? तो भाजपा ने उन्हें शाहबाद में चुनाव लड़ने क्यों नहीं दिया और नरवाना भेजने का फैसला क्यों लिया?

नरवाना की जनता के साथ यह अन्याय क्यों किया गया? अगर वह 'कोहिनूर हीरा' हैं, तो भाजपा ने उन्हें अपने पास क्यों नहीं रखा? क्या शाहबाद की जनता उन्हें अपना नेता नहीं मानती? इसका जवाब भाजपा और उनके समर्थकों को देना होगा।

आगे की कहानी में और भी रोचक चुनावी खबरें मिलेंगी। पढ़ते रहिए विश्वप्रेम समाचार पत्र, जहां हम लाएंगे कैसे इनैलो उम्मीदवार विद्यारानी के पति श्यामलाल के घमंड का खामियाजा खुद विद्यारानी को भुगतना पड़ेगा 

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