क्या किसान आंदोलन खालिस्तानी एजेंडे का समर्थन करेगा?

 क्या किसान आंदोलन खालिस्तानी एजेंडे का समर्थन करेगा? क्या किसान नेता अब गुरपतनंत सिंह पन्नू जैसे खातिस्तानियों के हाथों को कठपुतली बनेंगे? क्या किसान आंदोलन खालिस्तानियों का साथ देगा ?


किसान आंदोलन, जिसने पिछले कुछ वर्षों में भारतीय राजनीति और समाज में बड़ा स्थान पाया है, अब एक नाजुक मोड़ पर खड़ा है। हाल ही में खालिस्तानी समर्थक और अमेरिका में बसे गुरपतवंत सिंह पन्नू ने किसान नेताओं से जुड़ी विवादास्पद टिप्पणियां की हैं, जो आंदोलन की दिशा और उसकी निष्ठा पर सवाल खड़े कर रही हैं। इस संदर्भ में यह सवाल उठता है कि क्या किसान नेता पन्नू जैसे चरमपंथी विचारों का समर्थन करेंगे या उससे दूरी बनाकर अपने आंदोलन की वैधता और उद्देश्य को संरक्षित रखेंगे?किसान आंदोलन का आरंभ कृषि कानूनों के विरोध से हुआ था। यह आंदोलन भारतीय किसानों, विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों की आर्थिक सुरक्षा और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए खड़ा हुआ। आंदोलन की ताकत शांतिपूर्ण प्रदर्शन और लोकतांत्रिक तरीकों में थी, जिसने इसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन दिलाया।

गुरपतवंत सिंह पन्नू, जो "सिख्स फॉर जस्टिस" संगठन के प्रमुख हैं, ने हाल ही में एक वीडियो संदेश में किसान नेताओं से चंडीगढ़ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम का विरोध करने और उग्र कदम उठाने की अपील की। उनकी इस टिप्पणी में किसान आंदोलन को खालिस्तानी एजेंडे से जोड़ने का स्पष्ट प्रयास नजर आया। उन्होंने इसे सिख किसानों की हिंदू प्रधानमंत्री के खिलाफ लड़ाई बताया, जो कि आंदोलन के मूल विचारों के विपरीत है।

किसान आंदोलन के भीतर नेताओं के बीच मतभेद और रणनीतिक असहमति पहले से ही जाहिर है। उदाहरण के लिए:

  1. रणनीति में भिन्नता: कुछ नेता आमरण अनशन की ओर बढ़ रहे हैं, जबकि अन्य दिल्ली की ओर मार्च करने पर अड़े हैं।
  2. अलग-अलग मुद्दे: शंभू बॉर्डर और खनौरी बॉर्डर पर बैठे किसानों की मांगों और प्राथमिकताओं में भी असमानता दिख रही है।
  3. नेताओं का बयानबाजी: कुछ नेताओं के आक्रामक बयानों ने आंदोलन की शांतिपूर्ण छवि को धूमिल किया है।

यह आंतरिक विवाद आंदोलन की एकता और उद्देश्य को कमजोर कर रहा है।

खालिस्तानी एजेंडे से जुड़ाव का खतरा

पन्नू जैसे चरमपंथियों के समर्थन ने आंदोलन को एक संवेदनशील स्थिति में डाल दिया है। यदि किसान नेता इन विचारों से दूरी नहीं बनाते, तो इसका असर आंदोलन की वैधता और जनता के समर्थन पर पड़ सकता है। भारतीय समाज में खालिस्तानी विचारधारा व्यापक रूप से अस्वीकार्य है, और इससे जुड़े किसी भी आंदोलन को समर्थन मिलना कठिन हो सकता है।

किसान नेताओं के लिए परीक्षा की घड़ी

यह समय किसान नेताओं के लिए आत्मनिरीक्षण और दृढ़ता का है। उन्हें स्पष्ट करना होगा कि:

  1. उनका आंदोलन किसानों के हितों तक सीमित है
  2. वे किसी भी देशविरोधी एजेंडे का समर्थन नहीं करते
  3. शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीकों से अपनी मांगों को आगे बढ़ाना उनकी प्राथमिकता है

गुरपतवंत सिंह पन्नू की टिप्पणी किसान आंदोलन के लिए एक चेतावनी है। यदि किसान नेता समय पर और स्पष्ट रूप से पन्नू जैसे चरमपंथी विचारों से दूरी नहीं बनाते, तो यह आंदोलन को न केवल विभाजित कर सकता है, बल्कि उसकी वैधता और उद्देश्य को भी धूमिल कर सकता है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या किसान नेता इस परीक्षा में खरे उतरते हैं और आंदोलन की मूल भावना को बनाए रखते हैं, या फिर इसे बाहरी एजेंडों के हाथों कमजोर होने देते हैं।

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