मुख्यमंत्री बनने के बाद भी झोपड़ी में रहा था मुख्यमंत्री?

"एक गरीब नाई परिवार में जन्मे कर्पूरी ठाकुर, जिन्होंने दो बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन जिनकी ईमानदारी और सादगी की मिसाल आज भी राजनीति में दी जाती है। उनके लिए मुख्यमंत्री का पद जनसेवा का माध्यम था, न कि विलासिता का साधन।"



दो बार बिहार का मुख्यमंत्री रहने के बावजूद गरीब नाई परिवार में जनमे कर्पूरी ठाकुर का न मन बदला और न जीवन। वे फटा कुर्ता धोती पहनकर रिक्शे से मुख्यमंत्री कार्यालय से अपने घर आते-जाते दिख जाते थे। ले मेरा बेटा मुख्यमंत्री बन गया हो लेकिन मेरे लिए वह अब भी बेरोजगार है। वह मुझे पैसे नहीं भेजता। कर्पूरी ठाकुर की फकीरी के कई किस्से हैं जो आज भी राजनीति में एक मिसाल हैं। कर्पूरी ठाकुर का जन्म आज से 100 साल पहले भारत में ब्रिटिश शासन काल के दौरान समस्तीपुर के एक गांव पितौंझिया में नाई जाति के परिवार में हुआ था। अब कर्पूरी ठाकुर की जन्मस्थली होने के कारण इस गांव को कर्पूरीग्राम कहा जाता है। कर्पूरी ठाकुर समाजवाद के सच्चे सिपाही थे। केवल सत्रह साल की उम्र में उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया और जेल गए। देश की आजादी वे लोकनायक जेपी और समाजवादी चिंतक डॉ.राम मनोहर लोहिया के सच्चे चेले थे। तब बिहार के लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार, राम विलास पासवान और सुशील कुमार मोदी जैसे छात्र नेता राजनीति का ककहरा पढ़ रहे थे। इन सब ने कर्पूरी ठाकुर को राजनीतिक गुरु माना। बिहार में उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि आजादी का बाद बिहार का पहला विधानसभा चुनाव जीतकर वह विधायक बने। इसके बाद वह जीवनभर इस सीट से चुनाव नहीं हारे। सारी जिन्दगी विधायक और बीच में एक बार डिप्टी सीएम और दो बार बिहार का मुख्यमंत्री रहने के बावजूद उन्होंने अपने या अपने परिवार के लिए धन नहीं जुटाया। यही नहीं उन्होंने गांव के अपने पुराने घर में एक नया छप्पर तक नहीं डलवाया। जब तक वह जिन्दा रहे उन्होंने अपने बाप के लिए न कुछ किया न बेटे के लिए। उनकी ईमानदारी और सादगी से पूरा देश प्रभावित था। मुख्यमंत्री बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने अपने परिवार से साफ कह दिया था कि वह जनसेवा कर रहे हैं इसलिए उनसे कोई उम्मीद न रखी जाए। कहते हैं उनका कोई रिश्तेदार जब उनसे नौकरी मांगने आता तो वह उसे उस्तरा खरीदने के लिए कुछ रुपए थमा देते और कहते घर जाकर अपना परंपरागत पेशा शुरू करो। इसलिए दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उनके पिता ने नाई का काम नहीं छोड़ा। उनके बारे में एक और किस्सा बहुत मशहूर रहा। पटना में 1977 में जेपी के घर पर उनका जन्मदिन मनाया जा रहा था। इसमें जनता के पार्टी के चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख जैसे सभी दिग्गज नेता मौजूद थे। कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री थे। यह उनका दूसरा टर्म था। कर्पूरी ठाकुर अपनी चिर-परिचित वेशभूषा- फटा कुर्ता, पुरानी चप्पल, आंखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा पहने कमरे में दाखिल हुए। उन्हें इस हाल में देख सब मुस्कुराए। एक नेता ने मजाक में टिप्पणी की कि- ‘किसी मुख्यमंत्री के ठीक ढंग से गुजारे के लिए कितना वेतन मिलना चाहिए?’ सब हंसने लगे। युवा तुर्क चन्द्रशेखर उठे। उन्होंने अपने लंबे कुर्ते को फैला कर सबसे चंदा मांगना शुरू कर दिया। वह सबके सामने जाकर कहते-कर्पूरी ठाकुर कुर्ता फंड के लिए चन्दा दीजिए। इस तरह चन्द्रशेखर के फैलाए कुर्ते में कुछ सौ रुपए जमा हो गए। ये रुपए कर्पूरी ठाकुर को दिए गए ताकि वह इससे अपने लिए दो जोड़ा अच्छा धोती कुर्ता खरीद लें। कर्पूरी ठाकुर ने रुपए जेब में रखते हुए बड़ी सादगी से कहा- "मैं ऐसा ही ठीक हूं। इसे मैं मुख्यमंत्री राहत फंड में जमा कर दूंगा।" राजनीति की उन्हें पहली दीक्षा आचार्य नरेन्द्र देव ने दी थी। वे कर्पूरी ठाकुर के गांव के पास एक प्रांतीय किसान सम्मेलन में हिस्सा लेने आए थे। कर्पूरी आचार्य से बहुत प्रभावित हुए। ये 1938 की घटना है जब उनकी उम्र केवल 14 साल की थी। उन्होंने मेट्रिक फर्स्ट क्लास में पास की थी जो ब्रिटिश राज में एक बड़ी घटना थी। आगे की पढ़ाई के लिए पिता जब उन्हें गांव के जमींदार के पास ले गए तो जमींदार ने कहा- बहुत अच्छा, अब हमारे गोड़ दबा दो।" इससे कर्पूरी बहुत आहत हुए। वह अच्छे वक्ता थे और देखते-देखते वह युवाओं में लोकप्रिय हो गए। भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण वह करीब तीन साल जेल में रहे। इस वजह से वह बीए की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए। लेकिन जेल जाने के बाद कर्पूरी अपने इलाके में एक सम्मानित नेता के रूप में स्थापित नेता हो गए। देश आजाद हुआ और 1952 से विधानसभा चुनाव का दौर शुरू हुआ। जब वे जेल में थे तभी से वह कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से जु़ड़ गए थे। 1952 में वह पहली बार विधायक बने। इसके बाद वह विधायकी का चुनाव अपने जीवन में कभी नहीं हारे। वह एक बार समस्तीपुर से लोकसभा चुनाव भी जीते। बिहार की राजनीति शुरू से ही जातिगत चेतना से प्रेरित थी। सत्ता के लिए राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ नेताओं के बीच हमेशा खींचतान रही। इनमें जीतता वही जो दलित, पिछड़ा वर्ग और मुसलमान वोटरों को अपने साथ साध लेता। इस तरह आजादी से पहले से लेकर आजादी के बाद साठ के दशक तक बिहार की राजनीति पर उच्च जातियों के नेताओं का कब्जा रहा। कांग्रेस के नेता कृष्ण सिन्हा 1961 में अपनी मृत्यु तक मुख्यमंत्री रहे। फिर इस कुर्सी पर बिनोदानंद झा जैसे ब्राह्मण नेता का कब्जा हो गया। भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के प्रणेता व समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया चाहते थे कि भारत में सारे सोशलिस्ट एकजुट होकर मजबूत मंच बनाए। ये लोहिया का असर था कि 1967 में कई राज्यों में कांग्रेस की करारी हार हुई। हालांकि केंद्र में कांग्रेस जैसे-तैसे सत्ता पर काबिज हो गई। लोहिया के प्रयासों से ही संयुक्त समाजवादी दल का गठन हुआ। सन् 1967 के आम चुनाव में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में संयुक्त समाजवादी दल बड़ी ताकत के रूप में उभरी। 1960 के दशक के अंतिम दौर में पिछड़े वर्गों की एक युवा पीढ़ी शिक्षा में प्रवेश कर चुकी थी। उन दिनों विश्वविद्यालय कालेज के छात्र संघों पर बरसों से सवर्णों का कब्जा था। युवा राजनीति भूमिहार और राजपूत जैसी उच्च जातियों के तीन या चार छात्र नेता ही नियंत्रित करते थे। बिहार के कालेज विश्वविद्यालयों में नए नेताओं की फौज तैयार हो रही थी। पिछड़ा वर्ग के छात्रों को एकजुट करके नीतीश कुमार पटना कॉलेज के अध्यक्ष बने थे। इसी तरह उच्च जातियों के एकाधिकार को तोड़ कर लालू यादव पटना छात्र संघ के अध्यक्ष बने थे। लालू यादव अपने दिलचस्प और आक्रमक भाषणों के लिए पिछड़ों के बीच मशहूर हो रहे थे। इन्हीं युवा समाजवादियों में एक नाम रामविलास पासवान का भी था। सबने कर्पूरी ठाकुर को अपना राजनीतिक गुुुुरु मान लिया था। बिहार में सभी पिछड़ी जातियां एक मंच पर आने लगीं। नतीजतन 1970 में कर्पूरी बिहार के मुख्यमंत्री बने। उनके 163 दिन के छोटे से कार्यकाल में बड़े क्रान्तिकारी कदम उठाए गए। मैट्रिक परीक्षा में अनिवार्य विषय के रूप में अंग्रेजी को हटा दी गई। उन्होंने बेरोजगार इंजीनियरों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी। उनकी सरकार ने मंडल कमीश्न के दस साल पहले ही अति पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 12 फीसद आरक्षण की शुरुआत की। इसे कर्पूरी फार्मूला कहा गया। लेकिन समाजवादियों के आपसी मतभेदों के कारण कर्पूरी की सत्ता ज्यादा दिन नहीं रही। सत्तर के दशक में हुए जेपी आंदोलन एक टर्निंग प्वाइंट बन गया जब सारे समाजवादी और पिछड़े वर्ग के नेता एक झंडे के नीचे खड़े हो गए। 1973-77 के बीच लोकनायक जयप्रकाश के छात्र-आंदोलन से कर्पूरी भी जुड़ गए। 1977 में समस्तीपुर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से वह पहली बार सांसद बने। लेकिन बहुत जल्द लोकसभा से इस्तीफा देकर 24 जून, 1977 को कर्पूरी एक बार फिर मुख्यमंत्री बना दिए गए। यह कार्यकाल भी दो साल पूरे नहीं कर पाया। 1980 में मध्यावधि चुनाव हुआ तो कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में लोक दल बिहार विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरा और कर्पूरी ठाकुर इसके नेता बने। 1980 के दशक में वही लोग कर्पूरी ठाकुर के विरोधी हो गए जो उन्हें अपना राजनीतिक गुरू कहते नहीं थकते थे। वरिष्ठ कांग्रेस विधायक व विधानसभा अध्यक्ष शिवचंद्र झा ने कर्पूरी का तिरस्कार किया।” कर्पूरी लोकदल के नेता विरोधी दल थे। लोकदल के आधे यादव विधायकों ने मिलकर नेतृत्व को चुनौती दे दी। नेता विपक्ष की जगह अनूप यादव ने ले ली और इसके पार्टी की कमान लालू यादव ने संभाल ली। कर्पूरी ठाकुर केवल एक नेता नहीं, बल्कि एक विचारधारा थे। उनकी ईमानदारी, सादगी और समाज सेवा आज भी राजनीति में एक आदर्श हैं।”अगर आपको यह कहानी प्रेरणादायक लगी, तो लाइक, शेयर 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