"कंडेला कांड: 37 किसानों की शहादत और बिजली आंदोलन की दास्तां | हरियाणा का सबसे विवादास्पद संघर्ष"
"कंडेला कांड: 37 किसानों की शहादत और बिजली आंदोलन की दास्तां | हरियाणा का सबसे विवादास्पद संघर्ष"
नमस्कार, स्वागत है आपका Vishwaprem News में! और मैं हूँ आपकी अंजना।
आज हम आपको लेकर चलेंगे हरियाणा के इतिहास के एक ऐसे अध्याय में, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। यह कहानी है कंडेला कांड की—एक घटना जिसने किसानों और सरकार के बीच टकराव को नई ऊँचाई दी। तो आइए, समझते हैं इस विवाद की जड़ें और इसके परिणाम, जो पूरे देश में चर्चा का विषय बने। चलिए शुरू करते हैं आज का खास शो!"
क्या है 'कंडेला कांड' की पृष्ठभूमि?
भारतीय इतिहास में किसान आंदोलन एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है। हरियाणा के कंडेला गांव में हुआ किसान आंदोलन इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यह आंदोलन न केवल किसानों की एकजुटता और उनके अदम्य साहस का प्रतीक बना, बल्कि इसमें एक अप्रत्याशित नायक की भूमिका भी सामने आई—एक "सांड"। कंडेला गांव हरियाणा के उन गांवों में से एक है, जहां किसानों ने अपनी समस्याओं और अधिकारों के लिए जोरदार लड़ाई लड़ी।
यह कहानी 1991 से शुरू होती है, जब हरियाणा में बिजली संकट ने किसानों के लिए बड़े संकट खड़े कर दिए। तत्कालीन मुख्यमंत्री भजनलाल के कार्यकाल में बिजली की आपूर्ति मात्र ढाई घंटे कर दी गई और बिजली की दरों में भारी बढ़ोतरी कर दी गई। इस फैसले ने हरियाणा के किसानों को एकजुट कर दिया, और 'बिजली आंदोलन' की शुरुआत हुई।
लेकिन यह आंदोलन शांतिपूर्ण नहीं रहा। 1991 से 1996 के बीच पुलिस कार्रवाई में 17 किसानों की मौत हो गई। इसके बाद जब बंसीलाल की सरकार सत्ता में आई, तो भी हालात नहीं बदले। उनके कार्यकाल में 8 और किसानों को अपनी जान गंवानी पड़ी। 1991 से 2002 तक, कुल 37 किसानों की मौत पुलिस की फायरिंग में हो चुकी थी।
2000 में चौटाला सरकार और आंदोलन का विस्तार
2000 में जब ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री बने, उन्होंने बिजली बिल माफी का वादा किया था। लेकिन सत्ता में आने के बाद उनकी सरकार ने बिजली के बिल वसूलने के लिए सख्ती दिखानी शुरू कर दी।
- कंडेला गांव आंदोलन का केंद्र बन गया।
- किसानों ने बिजली के बिल न भरने का फैसला किया और कनेक्शन काटने आए अधिकारियों का विरोध किया।
- सरकार ने पांच गांवों की मुख्य बिजली लाइन ही काट दी, जिससे गुस्सा और भड़क गया।
इसके बाद कंडेला में पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच टकराव हुआ। हालांकि, कंडेला में किसी की जान नहीं गई, लेकिन पास के गुलकानी और नगूरां गांव में पुलिस की फायरिंग में 8 किसानों की जान चली गई।
सांड का संघर्ष और आंदोलन का प्रतीक
2002 में बिजली बिलों के मुद्दे पर शुरू हुआ यह आंदोलन धीरे-धीरे पुलिस और प्रशासन के खिलाफ किसानों की ताकत का प्रतीक बन गया। जब किसानों की आवाज को दबाने के लिए प्रशासन ने पुलिस बल का सहारा लिया, तब यह सांड आंदोलन में अप्रत्याशित रूप से शामिल हुआ। यह "सांड" इस आंदोलन की सबसे अनोखी और रोचक कहानी है। यह साधारण जानवर पुलिस के सामने किसानों के साथ खड़ा होकर विरोध का प्रतीक बन गया। जैसे ही पुलिस गांव में घुसने की कोशिश करती, यह सांड उन पर आक्रामक हो जाता। उसके आक्रमण से घोड़ा पुलिस तक घबरा जाती थी। पुलिसकर्मी सांड को देखकर भागने पर मजबूर हो जाते थे सांड का यह व्यवहार ग्रामीणों के लिए एक तरह से संबल बन गया। यह सांड उन किसानों की तरह ही निडर था, जो अपनी जमीन और अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। आंदोलन के दौरान यह सांड किसी योद्धा की तरह उभरा और जल्दी ही कंडेला कांड का प्रतीक बन गया। कंडेला कांड की समाप्ति के बाद, किसानों ने इस सांड को अपनी जीत का प्रतीक माना। इस याद को सजीव रखने के लिए ग्रामीणों ने एक मंदिर बनवाया, जिसे "सांड वाले बाबा का मंदिर" कहा जाता है। यह मंदिर आज भी कंडेला गांव में किसानों की एकता और संघर्ष की कहानी सुनाता है। यह सांड केवल एक जानवर नहीं था, बल्कि यह ग्रामीण संस्कृति और आंदोलन की ताकत का प्रतीक बन गया। इसकी भूमिका ने न केवल किसानों के मनोबल को बढ़ाया, बल्कि इसे राष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान दिलाई। इस घटना के बाद जींद-चंडीगढ़ मार्ग दो महीने तक बंद रहा। सरकार को झुकना पड़ा और कई मांगों को मानना पड़ा। लेकिन इस घटना के कारण ओमप्रकाश चौटाला ने अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान कभी कंडेला गांव के रास्ते से गुजरने की हिम्मत नहीं की।
आज की स्थिति और सवाल
22 साल बीत चुके हैं, लेकिन यह सवाल आज भी जिंदा है:
- क्या हिंसक आंदोलनों से कोई ठोस समाधान निकलता है, या वे समाज को और नुकसान पहुंचाते हैं?
- क्या सरकार और किसानों के बीच शांतिपूर्ण संवाद बेहतर समाधान नहीं हो सकता था?
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