क्या ये लोकतंत्र है… या लोकतंत्र का मज़ाक?"
"सोचिए… जनता ने आपको चुना, सरकार बनाई, विधेयक पास हुआ… लेकिन राज्यपाल ने फाइल अपने पास रख ली — सालों तक… बिना साइन किए, बिना लौटाए!
क्या ये लोकतंत्र है… या लोकतंत्र का मज़ाक?"
⚖️ सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से वही कड़ा सवाल पूछा है –
👉 "क्या राज्यपाल किसी बिल पर अनिश्चितकाल तक बैठे रह सकते हैं?"
👉 "अगर राज्यपाल 4 साल तक साइन न करें, तो लोकतंत्र का क्या होगा?"
🔥 और सुनिए… जब ये गंभीर सवाल कोर्ट ने उठाए, तब देश के सॉलिसिटर जनरल ने क्या कहा…
"अगर कोर्ट में केस 7 साल तक लंबित रह सकता है, तो राज्यपाल भी बिल पर बैठे रह सकते हैं… अदालत को इसमें दखल क्यों देना चाहिए?"
दोस्तों, सोचिए ज़रा —
क्या जनता की चुनी हुई सरकार अब राज्यपाल की मर्जी की गुलाम बन जाएगी?
क्या ये लोकतंत्र की हत्या नहीं है?
intro
सुप्रीम कोर्ट की पाँच-न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ, जिसका नेतृत्व मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई कर रहे हैं, ने हाल ही में केंद्र सरकार से एक बेहद गंभीर और संवैधानिक सवाल पूछा है। सवाल यह है कि क्या किसी राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह राज्य की विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक पर अनिश्चितकाल तक बैठे रहें और उस पर निर्णय न लें। अदालत ने इस संदर्भ में तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि राज्यपाल चार साल तक भी किसी विधेयक पर बैठ जाएं और उस पर कोई कार्रवाई न करें तो ऐसे में लोकतंत्र का क्या होगा। यह स्थिति न केवल निर्वाचित सरकार की भूमिका को कमजोर कर देती है बल्कि पूरे संघीय ढांचे को भी असंतुलित बना देती है। मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल का काम सिर्फ फाइल दबाकर रखना नहीं है बल्कि निर्णय लेना है। लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी गई सरकार और उसके विधायी निर्णयों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, न कि राज्यपाल की मनमर्जी को सर्वोच्च मान लिया जाए।
इस बहस के दौरान देश के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट की चिंताओं का जवाब देते हुए कहा कि हर समस्या का समाधान अदालत से निकालने की ज़रूरत नहीं है। उन्होंने तंज भरे लहजे में यह भी कहा कि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति से जाकर यह शिकायत करे कि उसका मामला सात साल से कोर्ट में लंबित है, तो क्या राष्ट्रपति उसे वहीं पर बरी कर देंगे। उनका यह तर्क साफ संकेत देता है कि वे न्यायिक देरी और राज्यपालों की ओर से विधेयकों को रोके रखने की मनमानी को एक ही तरह की प्रक्रिया बताकर उसे सामान्य ठहराने की कोशिश कर रहे हैं।
सॉलिसिटर जनरल का यह दृष्टिकोण कई संवैधानिक विद्वानों और लोकतांत्रिक चिंतकों के लिए चिंताजनक है, क्योंकि इससे यह संदेश जाता है कि जनता द्वारा चुनी गई सरकार की प्राथमिकताओं को टालना या नजरअंदाज करना कोई असामान्य बात नहीं है। जबकि सच यह है कि राज्यपाल एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति होते हैं जिनका काम लोकतंत्र को मजबूत करना है, न कि उसे कमजोर करना। अदालत ने भी यही सवाल उठाया कि यदि राज्यपाल को इस तरह का असीमित अधिकार मिल जाए कि वह किसी भी विधेयक को "हमेशा के लिए" रोक सकते हैं, तो फिर जनता की इच्छा और निर्वाचित प्रतिनिधियों का क्या महत्व रह जाएगा।
इस पूरे मामले का सबसे गंभीर पहलू यह है कि यदि राज्यपालों की ओर से इस तरह की मनमानी को सामान्य मान लिया जाए, तो राज्य सरकारें असहाय स्थिति में आ जाएंगी और लोकतांत्रिक शासन का मूल भाव ही नष्ट हो जाएगा। जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की बात और उनके निर्णय ही लोकतंत्र की आत्मा हैं। अगर उन्हें राज्यपाल के व्यक्तिगत निर्णयों और राजनीतिक झुकावों के आधार पर रोका जाएगा तो यह जनता के अधिकारों का अपमान होगा और संवैधानिक व्यवस्था की गहरी विफलता मानी जाएगी।
अदालत और केंद्र सरकार के बीच चल रही यह बहस आने वाले समय में भारतीय लोकतंत्र की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभा सकती है। यह सिर्फ विधेयकों पर हस्ताक्षर या देरी का सवाल नहीं है, बल्कि यह सवाल है कि आखिर लोकतंत्र में सर्वोच्चता किसकी होगी – जनता की चुनी हुई सरकार की या फिर संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की व्यक्तिगत मनमर्जी की। अदालत ने संकेत दे दिया है कि राज्यपालों का कर्तव्य केवल फाइलें दबाना नहीं, बल्कि समय पर निर्णय लेना है। लोकतंत्र के लिए यह अनिवार्य है कि जनता के फैसलों और उनके प्रतिनिधियों की आवाज़ को सर्वोपरि रखा जाए।
लोकतंत्र बनाम राज्यपाल की मनमानी? जनता चुने, सरकार बने… फैसला राज्यपाल की मर्जी से? सुप्रीम कोर्ट का सवाल – राज्यपाल कब तक फाइल दबा सकते हैं?" राज्यपाल लोकतंत्र के चौकीदार या रुकावट?" विधेयक पर 4 साल की चुप्पी… क्या यही लोकतंत्र है?"
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