छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बीजापुर में पत्रकार मुकेश चंद्राकर की निर्मम हत्या: मुफ़लिसी और जोखिम के बीच सच्चाई की कीमत चुकाते पत्रकार
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बीजापुर में पत्रकार मुकेश चंद्राकर !
मुकेश चंद्राकर, हमारे बीच के और हममें से एक पत्रकार, आज हमारे बीच नहीं हैं। छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के नक्सल प्रभावित इलाक़े में काम करने वाले इस निर्भीक पत्रकार की हत्या ने पत्रकारिता जगत और समाज को झकझोर कर रख दिया है। मुफ़लिसी और कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए मुकेश ने अपनी कलम और कैमरे के ज़रिये दुर्गम इलाकों की सच्चाई को दुनिया के सामने लाने का साहस दिखाया।
मुकेश चंद्राकर का काम उन आवाज़ों का प्रतिनिधित्व करता था जिन्हें अक्सर दबा दिया जाता है। बीजापुर जैसे नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में रिपोर्टिंग करना न सिर्फ़ जोखिम भरा है बल्कि एक बड़ी ज़िम्मेदारी भी है। उन्होंने उन मुद्दों को उजागर किया जिन्हें मुख्यधारा की मीडिया अक्सर नज़रअंदाज़ कर देती है। लेकिन उनका यही साहस उनकी जान पर भारी पड़ गया।
सूत्रों के मुताबिक, एक ठेकेदार ने मुकेश की हत्या की और उनके शरीर को उनके ही घर के सैप्टिक टैंक में छुपा दिया। यह घटना जितनी भयावह है, उतनी ही हमारी सामूहिक संवेदनहीनता पर सवाल उठाती है। सोचने वाली बात यह है कि अगर यह घटना दिल्ली या देश के किसी बड़े शहर में होती, तो शायद राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आक्रोश का सैलाब उठता। लेकिन बीजापुर जैसे सुदूर इलाके में हुई इस दर्दनाक घटना को मुख्यधारा की मीडिया और समाज ने अपेक्षित गंभीरता से नहीं लिया।
यह खामोशी केवल बीजापुर या मुकेश की कहानी नहीं है। यह भारतीय पत्रकारिता की उस सच्चाई का हिस्सा है, जो हर साल पत्रकारों के खून से लिखी जाती है। भारत में पत्रकारिता को सुरक्षित और स्वतंत्र पेशा नहीं माना जा सकता, खासकर जब पत्रकार सच्चाई के पीछे निडर होकर चलते हैं। मुकेश जैसे पत्रकार अपने जीवन को जोखिम में डालकर उन सच्चाइयों को उजागर करते हैं, जो सत्ता और समाज की आंखों में चुभती हैं।
हमारे देश में पत्रकारों के लिए ऐसा माहौल बन चुका है, जहां सच्चाई को उजागर करने का मतलब खुद को खतरे में डालना है। यह विडंबना है कि एक लोकतांत्रिक देश में पत्रकारिता का हाल ऐसा है कि ग्लोबल प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत का स्थान लगातार नीचे गिर रहा है। मुकेश चंद्राकर और उन जैसे अन्य पत्रकारों का बलिदान इस गिरावट की गवाही देता है।
मुकेश का जाना न केवल पत्रकारिता बल्कि समाज के लिए एक बड़ी क्षति है। यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां सच्चाई और साहस की कोई कद्र नहीं? मुकेश जैसे पत्रकारों के योगदान को याद करना और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है।
बीजापुर की इस घटना से हमें सबक लेना चाहिए। यह समय है कि हम पत्रकारिता के प्रति अपनी संवेदनशीलता बढ़ाएं और उन आवाज़ों को समर्थन दें जो सच्चाई के लिए लड़ती हैं। मुकेश चंद्राकर को हमारा सलाम, और उनके परिवार के प्रति गहरी संवेदनाएं।
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