जाब से अलग होकर नया प्रदेश बने हरियाणा को 57 हुए साल: जिसमें 33 साल रहे जाट मुख्यमंत्री ?

और 75 फीसदी गैर जाट होने के बावजूद इस वर्ग के मुख्यमंत्रियों के पास लगभग 25 वर्ष ही चौधर रही तो ऐसे मे 2024 में क्या रहेगा। वैसे जाति की बजाए चुनाव मुद्दों पर हो पर ऐसा नहीं होता आखिर क्यों इंट्रो:- हरियाणा में अगला मुख्यमंत्री कौन होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन इतिहास कहता है कि प्रदेश बनने के बाद से करीब 60 प्रतिशत से अधिक समय तक मुख्यमंत्री की कुर्सी जाट नेताओं के पास ही रही है, जबकि उनकी आबादी 22 प्रतिशत के आस-पास है। पत्रकार जतिन गांधी कहते हैं कि हरियाणा की राजनीति में जाटों का प्रभुत्व रहा है। वहां यह कहावत है कि जाट एक वोट डालता है और चार डलवाता है। तभी तो हरियाणा की राजनीति में जाटों का दख़ल रहा है। 10 में से 7 मुख्यमंत्री जाट समुदाय से रहे हैं। 2016 में जाट आरक्षण आंदोलन हुआ था जिसके बाद से ही जाटों में बीजेपी के प्रति ग़ुस्सा है। पत्रकार अदिति ने 2019 के चुनाव को लेकर बताया था कि हरियाणा के लोग चाहते हैं कि वहां जाट नेतृत्व आगे चले. इस चुनाव से पहले वहां जाटों के बड़े नेता के नाम पर भूपेंद्र सिंह हुड्डा ही थे. उनके बेटे दीपेन्दर सिंह हुड्डा ने चुनाव नहीं लड़ा, वो केंद्र की राजनीति में व्यस्त हैं. वह लोकसभा का चुनाव भी हार गए थे. कांग्रेस की तरफ से दूसरे बड़े नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला कैथल से चुनाव हार गए हैं. तो जाट नेतृत्व में विकल्प नहीं है। जाट राजनीतिक रूप से सचेत समुदाय है. सत्ताधारी रहने की इनकी आदत है. इस बार उन्होंने जानबूझ कर बीजेपी के ख़िलाफ़ वोटिंग की है. यह बीजेपी के ख़िलाफ़ लामबद्ध हो गए हैं. लेकिन साथ ही बीजेपी के पक्ष में ग़ैर जाट समुदाय का जुड़ाव भी उतना नहीं रहा जितना 2014 में हुआ था। नतीजों में जेजेपी की सफलता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हरियाणा विधानसभा चुनाव 2019 का सबसे बड़ा चेहरा बन कर उभरे हैं दुष्यंत चौटाला. लेकिन क्या बीजेपी को बहुमत नहीं मिलने के पीछे केवल जाट फ़ैक्टर ही था? आगे पत्रकार संजीव शुक्ल बताते हैं कि राज्य में मतदाताओं का गणित कुछ इस प्रकार है कि कुल जनसंख्या का एक चौथाई होने के बावजूद जाट यहां की राजनीति पर हावी रहे हैं। पंजाब से अलग होकर नया प्रदेश बने हरियाणा को 57 साल हुए हैं जिनमें से 33 साल के लगभग जाट मुख्यमंत्री सत्ता पर काबिज रहे। 75 फीसदी गैर जाट होने के बावजूद इस वर्ग के मुख्यमंत्रियों के पास लगभग 25 वर्ष ही चौधर रही। प्रदेश की राजनीति के जानकारों का कहना है कि गैर जाटों का प्रतिशत इतना अधिक होने के बावजूद राजनीति पर जाटों की पकड़ होने का एक कारण तो यह है कि वे बाकी वर्गों के मुकाबले अधिक सजग हैं और सत्ता का स्वाद उन्हें पसंद है। अत: उनकी कोशिश रहती है कि चौधर उन्हीं के पास रहे, पार्टी भले ही कोई भी हो। दूसरी अहम वजह है कि एक चौथाई मतदाता होने के बावजूद प्रदेश के 90 में से 33 लगभग विधानसभा क्षेत्रों में उनकी पकड़ बहुत मजबूत है। जाटों की संख्या ज्यादातर इन्हीं क्षेत्रों में सिमटी हुई है। जहां तक गैर-जाट मुख्यमंत्रियों का सवाल है उनके कार्यकाल भी लंबे नहीं रहे। 5 गैर जाट मुख्यमंत्रियों में से अभी तक का रिकॉर्ड भजन लाल का था अब मनोहर लाल खट्टर ने भी बना लिया है। प्रदेश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब पिछले विधानसभा चुनावों मेें भाजपा ने अपने दम पर सरकार बनाई। पं. भगवत दयाल शर्मा (कांग्रेस) राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे, जबकि विशाल हरियाणा पार्टी के राव बीरेंद्र सिंह उनके बाद कुर्सी पर बैठे। ये दोनों ही गैर जाट थे। इनके अलावा जो अन्य गैर जाट मुख्यमंत्री बने वे हैं बनारसी दास जिन्हें 2 बार कुर्सी मिली एक बार कांग्रेस और दूसरी बार जनता दल से। भजन लाल कांग्रेस के मुख्यमंत्री के तौर पर 3 बार कुर्सी पर बैठे। राज्य के मशहूर 3 लालों में से बंसी लाल और देवी लाल के परिवारों ने सबसे अधिक समय राज किया। बंसी लाल 3 बार सत्ता में आए और सब मिलाकर करीब 12.6 साल मुख्यमंत्री रहे, जबकि देवी लाल दो बार मुख्यमंत्री बने और पौने पांच साल सरकार चलाई। चौधरी देवी लाल के पुत्र ओम प्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री तो 5 बार बने लेकिन सरकार में 6 साल के लगभग ही रहे। अंतिम में आपकी राय जाट और गैर जाट की राजनीति ने प्रदेश का कितना नुक्सान किया है और यदि यह खत्म हो जाए तो प्रदेश का कितना फायदा होगा।

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